Saturday 27 July 2013

Translating NISSIM EZEKIEL'S POEM

Translating NISSIM EZEKIEL 

सिर्फ यादाशत   से आँका जाये तो ,
हमारा प्रेम संतुष्ट था 
जब बम फूटा  था कश्मीर में ;
मेरी जिन्दगी भी टूट चुकी थी 
और मिल गयी थी तुम्हारी में .

युद्ध बड़ी बात नहीं थी 
यधपि हमने ध्यान देने की कोशिश की ,
मौसम ,समय ,स्थान ने 
अपने रोज के नाम अस्वीकृत  कर दिए .
एक दिन तुमने कहा ,
'अचानक  मैं बड़ी हो गयी हूँ '.
कीमत सिर्फ एक हज़ार चुम्बन  थी .

कोई भी व्यक्ति बवंडर हो सकता है, 
कोई भी औरत बिज़ली ,
परन्तु बसे हमें ले जाती हैं  हमारी मुलाकात तक,
 रेल गाड़ियाँ हमारे गंतव्य तक ,
इन सब मे और कैफ़े में  ,
 समुंदर किनारे
पार्क में बेंच पे,
हमारा संगीत बना था .

मैं कहता हूँ तुम्हे रुकने को 
और इसे दुबारा सुनने को 
परन्तु तुम आगे घूम जाती हो  
कोई और संगीत सुनने को .
ये सच है 
हम गुंजों पे जिन्दा नहीं रह सकते .

दस हज़ार मील दूर 
तुम बन जाते हो चिठियों की बौछार ,
एक तस्वीर , एक अखबार की कतरन 
पेंसिल के टिप्पणी के साथ रेखांकित की हुयी ,
और रात की गंध। 

  मेरे जनम  और पुनर्जन्म के 
 इस गंदे ,अशिष्ट शहर में 
तुम एक  नया तरीका थी 
सच पे हसंने का .
 
मैं तुम्हे वापिस चाहता हूँ 
कठोर ख़ुशी के साथ 
जो तुम हलके से पहनती हो ,
 तुम्हारे कंधे ,स्तन  
और जंघा सहारा दिए हुए .

परन्तु तुम इसे तोड़ने के लिए पूछती हो .. 
तुम्हारी  नवीनतम चिठी कहती है :
'मैं रामानुजन की अनुवादित कन्नड़ धार्मिक कविता 
संग्लन कर रही हूँ :
"इश्वर खेल रहा है 
अगनी की पट्टियों  के साथ "
मैं भी खेलना चाहती हूँ अग्नि के साथ . 
मुझे जल जाने दो .

SENSE

ginger, cumin ,coriander ,chilly turmeric 
all reminding me of you .
you had no sense of cooking 
but 
you made sense in my life .

नानक

जगह जगह की तंग गलियों से गुजरा
लोगो की मानसिकता से खुजलाया अपना सर
टीलों की सफ़ेद धुप से 
जब हुयी दाढ़ी सफ़ेद 
तब जाना जिन्दगी का मतलब . 
परन्तु जहाँ जहाँ नानक गया था 
वहां खतपतवार की तरह 
दाढ़ी मूंछे ही क्यों पैदा हुयी 
नानक क्यों नहीं

TRANSLATING A POEM- A REQUEST BY KAMALA DAS

TRANSLATING A POEM- A REQUEST BY KAMALA DAS
जब मैं मरुँ 
फैंकना मत 
मांस और हड्डियाँ 
बल्कि ढेर लगा देना 
और उन्हें बोलने देना 
उनकी बदबू के जरिये , 
इस धरती के ऊपर 
जीवन का मोल क्या था ,
अंत में 
प्यार का मोल क्या था

Tuesday 23 July 2013

A POEM

हो सकता है 
तुझे बड़ा अजीब लगे ,
मैंने अपने नाख़ून बढ़ा लिए हैं 
वक़त को खुरेदना चाहता हूँ 
तब तक 
जब तक 
ये नज़र ना आ जाये 
तुम पहले दिन 
कैसे दिखते थे 
इतना उलझ गया हूँ तुझमे और 
तुझसे सम्बंधित चीजों में
कोई हिसाब नहीं रहता
बस इतना सा याद है
जिस दिन नमकीन चने मिले
उस दिन सोमवार होता है ,
तुम्हारे झूठे चमच का पास पड़े होना
तुम्हारा पास बैठे होना लगता है .......................

TWO POEMS

बारिशें होती है 
तो घुलने लगता है 
आसमान भी जमीं पे ,
तुम ज़रा देख कर बताओ 
जमीं कहाँ है 
असमान कहाँ है
..............................
तुम जून को दिसम्बर कहना 
मैं पतझड़ को सावन 
चलो आज मिलकर 
वक़्त को धोखा देते हैं

WAITING

WAiting is not durational 
Rather its visual.
You are in front of my eyes 
And I 
Still waiting ..

VISION

DONT COMB YOUR CURLY HAIR 
LET THIS CONFUSION ENCOUNTER YOUR RATIONALITY .
CLARITY OF VISION IS NOT GOOD FOR LOVERS

LEFT HAND

you ALWAYS touched ,FELT ,LOVED ME WITH YOUR RIGHT HAND .
WHAT WAS IN YOUR LEFT HAND ? 
IT WAS YOU (?)

YOU

ginger, cumin ,coriander ,chilly turmeric 
all reminding me of you .
you had no sense of cooking 
but 
you made sense in my life ..

FATHER

YOUR FATHER IS THE FIRST PERSON 
WHO FANTASIZES ABOUT YOU IN BRIDAL DRESS .
HE DECIDES 
WHO WILL MAKE LOVE 
TO YOU
AFTER MARRIAGE

a poem dedicated to KAFKA

बालकनी में
गमलो में लगे पौधे
लगते हैं काफ्का के किसी उपन्यास के किरदार,
अस्तित्व है भी और नहीं भी
पत्तियों का ज्यादा हरा होना
और टहनियों का गीला रहना 
एक अजनबी उदासी है ,
उलझनों से भरा
जैसे किसी अदालत की कचेहरी में खड़ा हो 
और ये भी न पता हो की गुनाह क्या है,
काफ्का खुद यहाँ आए तो बताये इसको
इसकी कहानी,
हर रोज़ सुबह एक ब्राह्मण धोता है अपने पाप
पौधों में पानी डालकर,
ये ब्राह्मण काफ्का को नहीं समझता
न ही इसे ये पता है
ये पौधों को सांस दे रहा है या गुलामी
ये वही चौकीदार है
जिसका जिक्र
काफ्का ने एक उपन्यास में किया था.

Translating a poem


मुझे एक ऐसा घर दो जो मेरा न हो ,
जहाँ मैं आ और जा सकूँ 
बिना किसी सुराग के ,

कभी भी चिंता किये बिना 
नलसाजी ,
पर्दों के रंग ,
बिस्तर के पास किताबों के बेसुरेपन की ,
एक घर जो मैं पहन सकूँ हलके से ,
जहाँ कमरे बंद न हो
कल की बातों से ,
जहाँ आत्मा फूली हुयी न हो
दरारे भरने के लिए

एक घर , इस शरीर जैसा
कितना अनजान जब मैं सम्बन्ध रखने की कोशिश करूँ,
कितना सत्कार करने वाला
जब मैं निश्चय करूँ
मैं सिर्फ देखने आई हूँ
-ARUNDHATHI SUBRAMANIAM