Saturday 20 April 2013

मच्छर

इस शहर के मच्छर 
ज्यादा समझदार है 
बेचैन ही सही 
हरकत तो है जिन्दा होने की ,
तुम्हारे स्वार्थी कान की नाक पे बैठ कर 
विरोध तो करते है 
की ये धरती सिर्फ तुम्हारे बाप की नहीं है /
मच्छर समझदार है ज्यादा 
उन लोगो से 
जो दफ्तरों और शानदार दुकानों में 
एक कुर्सी पे बैठे रहने के कष्ट को
जिन्दगी मान लेते है ,
तंग क्यों नहीं आ जाते वो ऐसी जिन्दगी से ,
कह क्यों नहीं देते
सरे आम बाज़ार में खड़े होकर
"हमने ऐसी जिन्दगी तो नहीं चाही थी ",
क्यों नहीं कह देते
पांच सौ के नोट पे बनी गाँधी की तस्वीर से
की अंगुलियाँ छिल गयी है उनकी
नोट गिनते गिनते
और
वो ऊब गए हैं उसकी खामोश तस्वीर से,
ऐसा क्यों नहीं कर देते
लक्ष्मी को तस्वीर से निकाल कर
बिठा क्यों नहीं देते
उस बुढिया के साथ
जो सड़क के मोड़ पे
मूंगफलिया बेच रही है
कब से ये दिवाली का खा रही है
इसे भी तो पता लगे
रेशमी साड़ी में
जिन्दगी की कठोरता का पता नहीं लगता ,
जिन्दगी जब बिस्तर से
उतरकर सड़क पे आती है
सबसे पहले सपने घिसते है ,
थोडा होंसला क्यों नहीं कर लेते
और फैंक क्यों नहीं
देते चुल्लू भर पानी आसमान पे
कभी थोडा तो हो दुस्साहस
जिन्दगी को नए तरीके से जीने का ,
लोगो के निपुन्सक दिमागों में
सोच के नए पौधे क्यों नहीं उगते ,
क्यों आदत पड़ी हुयी है
खरपतवार की तरह टीलों पे उगने की

No comments:

Post a Comment