Monday 1 April 2013

POEM


मेरे कमरे में बिखरे हुए सिगरेट के टुकड़ों को देखकर
क्यों पुराने अख़बार सा मुहं  बनाती हो 
क्या तुमने कभी सोचा हैं ?
हर एक सिगरेट के मैंने कितने कश लगाये होंगे
और हर कश से निकले धुयें से
तेरी यादों के कितने छल्ले बनायें होंगे
शायद तुमने कभी सोचा नहीं होगा
अगर सोचा होता
इसको कभी नशा नहीं कहती .....

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